Saturday 3 October 2015

ऐसा क्या हुआ था जो भगवान राम को अपने ही अराध्य भोलेनाथ से युद्ध करना पड़ा!








भारत का पौराणिक इतिहास युद्ध और संग्राम की महागाथाओं से भरा हुआ है। असुरों और राक्षसों के रूप में धरती पर फैली बुराई का अंत करने के लिए भगवान विष्णु ने कई अवतार लिए। रावण की राक्षसी सेना का विनाश कर सीता को उसकी कैद से मुक्त करवाने के बाद राम, अपनी पत्नी सीता, भाई लक्ष्मण, हनुमान और सुग्रीव के साथ अयोध्या वापस लौट आए थे।

लेकिन उनका अयोध्या लौट आना रामायण की गाथा का अंत नही था। उनके अयोध्या लौट आने के बाद भी घटनाएं उतनी ही तेज गति से घटित हुईं, जितनी कि पहले होती थीं। इन्हीं घटनाओं में से एक घटना उस समय की है जब विष्णु के अवतार प्रभु राम ने संहार के देवता शिव को युद्ध के लिए ललकारा था।

सुनने में बहुत अजीब लगता है लेकिन यह सच है कि भगवान राम ने अपनी प्रतिष्ठा और भोलेशंकर ने अपने वचन की लाज रखने के लिए एक-दूसरे से भयंकर युद्ध किया था, जिससे पूरी धरती कांप उठी थी। देवताओं ने भी आकाश में बैठकर देखा था और इस युद्ध की समाप्ति का इंतजार किया था।

यह बात तब की है जब रावण का वध कर अपने वनवास की अवधि समाप्त होने के पश्चात राम, अयोध्या वापस लौट आए और अयोध्या में एकछत्र राज स्थापित करने के लिए उन्होंने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ के अंतर्गत जिस भी राज्य से वह अश्व होकर गुजरता वह राज्य उनका होता चला गया।

बहुत से राजाओं ने अपना शासन बचाने के लिए अश्व को पकड़ने का भी प्रयास किया लेकिन शत्रुघ्न, भरत के पुत्र पुष्कल और हनुमानजी के नेतृत्व वाली अयोध्या की सेना के सामने उन्हें घुटने टेकने ही पड़ते थे।

अनेक राज्यों पर विजय घोषित हो जाने के बाद अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा देवपुर नामक राज्य में पहुंचा, जहां राजा वीरमणि का शासन था। राजा वीरमणि अत्याधिक धर्मप्रिय और कर्तव्यनिष्ठ शासक था। उसके राज में प्रजा अत्यंत प्रसन्न तो थी ही साथ ही वीरमणि भगवान राम और शिव का भी बड़ा भक्त था।

वीरमणि के दो पुत्र, रुक्मांगद और शुभांगद भी उसी की ही तरह पराक्रमी थे और वीरमणि का भाई वीरसिंह, महायोद्धा कहा जाता था। वीरमणि ने शिव की तपस्या कर उनसे यह वरदान मांगा था कि शिव जी उनके राज्य की रक्षा करेंगे। उनके राज्य की रक्षा स्वयं भगवान शिव करते थे इसलिए कोई भी राजा उनके राज्य पर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं करता था। लेकिन राम के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा वीरमणि के राज्य में पहुंच गया था और वीरमणि के पुत्रों ने उस अश्व को बंदी भी बना लिया था।

जब वीरमणि को यह समाचार मिला कि उनके पुत्रों ने अश्व को पकड़ लिया है तो वे काफी चिंतित हुए और अपने पुत्र से कहा कि उन्होंने अनजाने में भगवान राम के घोड़े को पकड़ लिया है। वीरमणि का कहना था कि राम मित्र के समान हैं, इसलिए उनका घोड़ा लौटा देना चाहिए। उनसे शत्रुता करना समझदारी नहीं है।

पिता की बात सुनकर रुक्मानंद ने कहा कि उसने शत्रुघ्न को युद्ध के लिए आमंत्रित भी कर लिया है, इसलिए अब बिना युद्ध किए अश्व लौटा देने से अपमान होगा। इसलिए युद्ध करने की आज्ञा दी जानी चाहिए।

अब तक शत्रुघ्न को भी यह सूचना मिल गई थी कि उनके अश्व को बंदी बना लिया गया है। वे अत्यंत क्रोधित थे और अपनी सेना के साथ युद्ध के मैदान में पहुंच गए। हनुमान ने उन्हें पहले ही कहा था कि देवपुर पर जीत हासिल करना असंभव है क्योंकि स्वयं शिव उनके राज्य की रक्षा करते हैं इसलिए बातचीत के माध्यम से हल निकालना चाहिए। हनुमान का कहना था कि स्वयं राम को ही वीरमणि से बात करनी चाहिए।

लेकिन हनुमान की बात से शत्रुघ्न प्रभावित नहीं हुए। उन्होंने कहा ‘हमारे होते हुए भगवान राम युद्ध भूमि आएं तो यह हम सभी के लिए शर्मनाक है। इसलिए युद्ध तो हमें करना ही होगा’।

भरत के पुत्र पुष्कल ने राजा वीरमणि से युद्ध किया, हनुमान का सामना वीरमणि के पराक्रमी भाई वीरसिंह और शत्रुघ्न का सामना रुक्मानंद और शुभांगद से हुआ। पुष्कल ने वीरमणि को मूर्छित कर दिया वहीं हनुमान ने भी वीरसिंह को धारशायी कर शुभांगद और रुक्मानंद को नागपाश में बांध दिया।

जब वीरमणि को होश आया तब उसने अपने इष्ट देव भगवान शंकर का स्मरण कर उनसे सहायता मांगी। महादेव ने वीरभद्र के नेतृत्व में भृंगी और नंदी सहित अपने समस्त गणों को युद्ध के मैदान में भेज दिया।

वीरभद्र ने अपने त्रिशूल से पुष्कल का वध कर दिया, भृंगी ने महादेव द्वारा दिए गए पाश में शत्रुघ्न को बांध दिया और नंदी ने शिवास्त्र का प्रयोग कर हनुमान को पराभूत कर दिया। इसके अलावा भगवान शिव के गणों और वीरमणि की सेना ने मिलकर अयोध्या के सैनिकों को धूल चटा दी।

इस विपदा को देखकर शत्रुघ्न भी प्रभु राम का स्मरण करने लगे। शत्रुघ्न के स्मरण करते ही राम, अपने भाई लक्ष्मण के साथ युद्धक्षेत्र में पहुंच गए। सबसे पहले तो उन्होंने हनुमान को नागपाश से मुक्त करवाया। पुष्कल की मृत्यु से भगवान राम बेहद क्रोधित हुए उन्होंने शिव के गणों को विश्वामित्र द्वारा प्रदान किए गए दिव्यास्त्रों से विदीर्ण कर दिया। नंदी समेत शिव के समस्त गण त्राहिमाम-त्राहिमाम कहते हुए शिव से सहायता करने की गुहार लगाने लगे।

उनके बुलाने पर महादेव भी युद्ध भूमि पर प्रकट हुए। उनके रणक्षेत्र में आते ही एक ऐसा तेज उत्पन्न हुआ जिससे राम की सेना मूर्छित हो गई।

जब राम ने अपने सामने शिव को देखा तो सभी हथियारों को त्यागकर उन्होंने उन्हें दंडवत प्रणाम किया। भगवान राम ने शिव से कहा अब तक जो भी हुआ आप ही के आशीर्वाद से हुआ। रावण का वध भी आपकी कृपा से हुआ और अश्वमेध यज्ञ भी आपके आशीर्वाद से ही संपन्न किया जा रहा है इसलिए कृपा कर इस युद्ध का अंत करें।
शिव ने भी राम से कहा कि वे स्वयं विष्णु के अवतार हैं, इसलिए उनसे युद्ध करने की बिल्कुल भी इच्छा नहीं है लेकिन भक्त वीरमणि को दिए रक्षा के वरदान के लिए वे इस युद्ध से पीछे नहीं हट सकते। भगवान शिव ने राम को संकोच छोड़कर युद्ध करने के लिए आमंत्रित किया।

श्रीराम ने शिव की आज्ञा का पालन करते हुए युद्ध का प्रारंभ किया। दोनों के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया। राम ने शिव पर अपने सारे दिव्यास्त्रों का प्रयोग कर दिया लेकिन कोई भी अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाया। आखिर में जाकर उन्होंने शिव द्वारा वरदान में दिए गए पाशुपतास्त्र का प्रयोग करते हुए शिव से कहा “आप ही ने मुझे यह अस्त्र वरदान में देकर यह कहा था कि त्रिलोक में कोई भी इससे पराजित हुए बिना नहीं रह सकता। इसलिए हे महादेव आपकी ही आज्ञा और इच्छा से मैं इसका प्रयोग आप पर ही करता हूं”। इतना कहते हुए राम ने पाशुपतास्त्र को भगवान शिव पर चला दिया। वो अस्त्र सीधे महादेव के हृदयस्थल पर जाकर लगा और भगवान शिव उनसे संतुष्ट हो गए।

भगवान शिव ने राम से कहा “आपने युद्ध में मुझे संतुष्ट किया है इसलिए जो इच्छा हो वह वर मांग लें”।

वर के रूप में श्रीराम ने पुष्कल और इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त असंख्य सैनिकों के प्राण वापस मांग लिए। महादेव ने भी खुश होकर उन्हें तथास्तु कहा और सभी को जीवनदान दे दिया। भगवान शिव की आज्ञा से राजा वीरमणि ने अश्वमेध का घोड़ा श्रीराम को लौटा दिया।



 



        


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