Friday, 30 October 2015

truth of the birth of lord ram



1 - ब्रह्मा जी से मरीचि हुए,
2 - मरीचि के पुत्र कश्यप हुए,
3 - कश्यप के पुत्र विवस्वान थे,
4 - विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए.वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था,
5 - वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था, इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुलकी स्थापना की |
6 - इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए,
7 - कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था,
8 - विकुक्षि के पुत्र बाण हुए,
9 - बाण के पुत्र अनरण्य हुए,
10- अनरण्य से पृथु हुए,
11- पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ,
12- त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए,
13- धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था,
14- युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए,
15- मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ,
16- सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित,
17- ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए,
18- भरत के पुत्र असित हुए,
19- असित के पुत्र सगर हुए,
20- सगर के पुत्र का नाम असमंज था,
21- असमंज के पुत्र अंशुमान हुए,
22- अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए,
23- दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए, भागीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था.भागीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे |
24- ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए, रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया, तब से श्री राम के कुल को रघु कुल भी कहा जाता है |
25- रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए,
26- प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे,
27- शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए,
28- सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था,
29- अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए,
30- शीघ्रग के पुत्र मरु हुए,
31- मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे,
32- प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए,
33- अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था,
34- नहुष के पुत्र ययाति हुए,
35- ययाति के पुत्र नाभाग हुए,
36- नाभाग के पुत्र का नाम अज था,
37- अज के पुत्र दशरथ हुए,
38- दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हुए |
इस प्रकार ब्रह्मा की उन्चालिसवी (39) पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ |


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Saturday, 24 October 2015

लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर : यहाँ पर लाख छिद्रों वाला शिवलिंग है






आज हम आपको लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर के बारे में बताएँगे जो की शिवरीनारायण से 3 किलोमीटर और छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 120 किलोमीटर दूर खरौद नगर में स्तिथ है।

कहते है की भगवन राम ने यहाँ पर खर व दूषण का वध किया था इसलिए इस जगह का नाम खरौद पड़ा।  खरौद नगर में प्राचीन कालीन अनेक मंदिरों की उपस्थिति के कारण इसे छत्तीसगढ़ की काशी भी कहा जाता है।

लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर की स्थापना से जुडी एक किवदंती प्रचलित है जिसके अनुसार भगवान राम ने खर और दूषण के वध के पश्चात , भ्राता लक्ष्मण के कहने पर इस मंदिर की स्थापना की थी।

लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर के गर्भगृह में एक शिवलिंग है जिसके बारे में मान्यता है की इसकी स्थापना स्वयं लक्ष्मण ने की थी।  इस शिवलिंग में एक लाख छिद्र है इसलिए इसे लक्षलिंग कहा जाता है।

इन लाख छिद्रों में से एक छिद्र ऐसा है जो की पातालगामी है क्योकि उसमे कितना भी जल डालो वो सब उसमे समा जाता है जबकि एक छिद्र अक्षय कुण्ड है क्योकि उसमे जल हमेशा भरा ही रहता है। लक्षलिंग पर चढ़ाया जल मंदिर के पीछे स्थित कुण्ड में चले जाने की भी मान्यता है, क्योंकि कुण्ड कभी सूखता नहीं। लक्षलिंग जमीन से करीब 30 फीट उपर है और इसे स्वयंभू लिंग भी माना जाता है।

यह मंदिर नगर के प्रमुख देव के रूप में पश्चिम दिशा में पूर्वाभिमुख स्थित है। मंदिर में चारों ओर पत्थर की मजबूत दीवार है। इस दीवार के अंदर ११० फीट लंबा और ४८ फीट चौड़ा चबूतरा है जिसके ऊपर ४८ फुट ऊँचा और ३० फुट गोलाई लिए मंदिर स्थित है।

मंदिर के अवलोकन से पता चलता है कि पहले इस चबूतरे में बृहदाकार मंदिर के निर्माण की योजना थी, क्योंकि इसके अधोभाग स्पष्टत: मंदिर की आकृति में निर्मित है। चबूतरे के ऊपरी भाग को परिक्रमा कहते हैं। सभा मंडप के सामने के भाग में सत्यनारायण मंडप, नन्दी मंडप और भोगशाला हैं।

मंदिर के मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही सभा मंडप मिलता है। इसके दक्षिण तथा वाम भाग में एक-एक शिलालेख दीवार में लगा है। दक्षिण भाग के शिलालेख की भाषा अस्पष्ट है अत: इसे पढ़ा नहीं जा सकता। उसके अनुसार इस लेख में आठवी शताब्दी के इन्द्रबल तथा ईशानदेव नामक शासकों का उल्लेख हुआ है।

मंदिर के वाम भाग का शिलालेख संस्कृत भाषा में है। इसमें ४४ श्लोक है। चन्द्रवंशी हैहयवंश में रत्नपुर के राजाओं का जन्म हुआ था। इनके द्वारा अनेक मंदिर, मठ और तालाब आदि निर्मित कराने का उल्लेख इस शिलालेख में है।

तदनुसार रत्नदेव तृतीय की राल्हा और पद्मा नाम की दो रानियाँ थीं। राल्हा से सम्प्रद और जीजाक नामक पुत्र हुए। पद्मा से सिंहतुल्य पराक्रमी पुत्र खड्गदेव हुए जो रत्नपुर के राजा भी हुए जिसने लक्ष्मणेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। इससे पता चलता है कि मंदिर आठवीं शताब्दी तक जीर्ण हो चुका था जिसके उद्धार की आवश्यकता पड़ी। इस आधार पर कुछ विद्वान इसको छठी शताब्दी का मानते हैं।

मूल मंदिर के प्रवेश द्वार के उभय पार्श्व में कलाकृति से सुसज्जित दो पाषाण स्तम्भ हैं। इनमें से एक स्तम्भ में रावण द्वारा कैलासोत्तालन तथा अर्द्धनारीश्वर के दृश्य खुदे हैं। इसी प्रकार दूसरे स्तम्भ में राम चरित्र से सम्बंधित दृश्य जैसे राम-सुग्रीव मित्रता, बाली का वध, शिव तांडव और सामान्य जीवन से सम्बंधित एक बालक के साथ स्त्री-पुरूष और दंडधरी पुरुष खुदे हैं।

प्रवेश द्वार पर गंगा-यमुना की मूर्ति स्थित है। मूर्तियों में मकर और कच्छप वाहन स्पष्ट दिखाई देते हैं। उनके पार्श्व में दो नारी प्रतिमाएँ हैं। इसके नीचे प्रत्येक पार्श्व में द्वारपाल जय और विजय की मूर्ति है।


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शिवलिंग : महमूद गजनवी ने इस पर कलमा खुदवाया था


गोरखपुर से 25 किमी दूर खजनी कस्‍बे के पास एक गांव है सरया तिवारी ,  यहां  पर महादेव का एक अनोखा शिवलिंग स्‍थापित है जिसे झारखंडी शिव कहा जाता है।

मान्‍यता है कि यह शिवलिंग कई सौ साल पुराना है और यहां पर इनका स्वयं प्रादुर्भाव हुआ है। यह शिवलिंग हिंदुओं के साथ मुस्लिमों के लिए भी उतना ही पूज्‍यनीय है क्योंकि इस शिवलिंग पर एक कलमा (इस्लाम का एक पवित्र वाक्य) खुदा हुआ है।

लोगों के अनुसार महमूद गजनवी ने इसे तोड़ने की कोशिश की थी, मगर वह सफल नहीं हो पाया। इसके बाद उसने इस पर उर्दू में 'लाइलाहाइल्लललाह मोहम्मदमदुर्र् रसूलुल्लाह' लिखवा दिया ताकि हिंदू इसकी पूजा नहीं करें।

तब से आज तक इस शिवलिंग की महत्ता बढ़ती गई और हर साल सावन के महीने में यहां पर हजारों भक्‍तों द्वारा पूजा अर्चना किया जाता है।

आज यह मंदिर साम्प्रदायिक सौहार्द का एक मिसाल बन गया है क्योंकि हिन्दुओं के साथ-साथ रमजान में मुस्लिम भाई भी यहाँ पर आकर अल्लाह की इबादत करते है।

कहते है की यह एक स्वयंभू शिवलिंग है। शिव के इस दरबार में जो भी भक्‍त आकर श्रद्धा से कामना करता है, उसे भगवान शिव जरूर पूरी करते हैं।

पुजारी , शहर काजी  और श्रद्धालु  के मुताबिक इस मंदिर पर कई कोशिशों के बाद भी कभी छत नही लग पाया है। यहां के शिव खुले आसमान के नीचे रहते हैं।

मान्‍यता है कि इस मंदिर के बगल मे स्थित पोखरे के जल को छूने से एक कुष्‍ठ रोग से पीड़ित राजा ठीक हो गए थे। तभी से अपने चर्म रोगों से मुक्ति पाने के लिये लोग यहां पर पांच मंगलवार और रविवार स्‍नान करते हैं और अपने चर्म रोगों से निजात पाते हैं।


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Thursday, 22 October 2015

हजारों साल पहले मर गया रावण, श्रीलंका में आज भी मौजूद है उसकी गुफा



पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक, रावण भारत से समुद्र पार लंका में रहता था। यह लंका सोने की बनी थी।
जानकर कहते हैं कि यह लंका आज का श्रीलंका है। भारत के अंतिम छोर से राम और उनकी वानर सेना समुद्र पार लंका गई थी। वहां रावण और उसकी राक्षस सेना का वध कर सीता को वापस लेकर लौटी। हालांकि, लंका महल का अब कोई अवशेष वहां नहीं दिखता, लेकिन रावण का प्राचीन मंदिर, उसकी गुफा और झरने आज भी बुलंद हैं। यह सब कुछ रावण इला में मौजूद हैं। 

यह गुफा पहाड़ की चोटी और घने जंगलों में छिपी है। इंटरनेट पर मौजूद इससे जुड़ी कुछ तस्वीरें जारी की जाती रही हैं। जानकार बताते हैं कि रावण ने यहां भगवान शिव की कठोर तपस्या की थी। आज यहां बौद्ध मठ है और बौद्ध भिक्षु रहते हैं।
माना जाता है कि श्रीलंका में कुछ लोग रावण की पूजा करते हैं। हालांकि, यह सच नहीं है। यहां पर रावण का एक भी मंदिर दिखाई नहीं देता। 





यहां से गुफा तक जाने का रास्ता शुरू होता है, जो पहाड़ों के बीच में है।हनुमान द्वारा अशोक वाटिका की पहचान करने के बाद रावण ने सीता को इस गुफा में भेज दिया था।  पहाड़ों के बीच में कहीं रावण की गुफा आज भी सुरक्षित हैं। 
                                                         गुफा की ओर जाने वाला रास्ता 
 प्राचीन कथाओं और स्थानीय लोगों के मुताबिक, हनुमान के लंका पर हमला करने के बाद सीता को अशोक वाटिका से इस गुफा में भेजा गया था। यहां काफी अंधेरा रहता है। अच्छे कैमरा फ्लैश भी काम नहीं करते। इसमें एक सुरंग है, जिसके सहारे अशोक वाटिका तक पहुंचा जा सकता है। 
                                          रावण का प्राचीन मंदिर। अब इसमें बौद्ध भिक्षु रहते हैं।
                                      मंदिर के अंदर चित्रकारी हजारों साल पुरानी बताई जाती हैं। 
 मंदिर की छत पर प्राचीन पेंटिंग के बचे हुए निशान, बताया जाता है कि रावण यहां बैठकर ध्यान करता था।
                                                  रावण की गुफा के पास बहता हुआ झरना 


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रावण के पूरे परिवार का मंदिर, देखने से पहले लिखना पड़ता है राम




इंदौर में अपने राम का निराला धाम ऐसा मंदिर है, जहां 108 बार राम लिखने पर ही प्रवेश मिलता है। यहां रावण की दो मूर्तियां हैं जिन्हें देखने से पहले राम नाम लिखना जरूरी होता है। यानी रावण ही राम का नाम लिखवाकर उनका गुणगान करवा रहा है। यहां पर रावण की मूर्ति के साथ विभीषण, कुंभकर्ण, कैकेयी सहित रावण का पूरा परिवार है।


रावण का एक अलग मंदिर भी है। इसके अलावा एक हिस्से में कुंभकर्ण की भी सोती हुई मूर्ति लगी हुई है। एक मंदिर सिर्फ राम नाम का है, जिसमें चारों ओर राम नाम लिखा है। यहां कुतुब मीनार से भी ऊंची हनुमान 51 फीट की मूर्ति बन रही है। जो 200 फीट ऊंचाई पर लगेगी।
रावण ही लिखवाता है राम नाम-
इस मंदिर में रावण की दो मूर्तियां हैं। यहां रावण मूर्तियां देखने आने वाले राम नाम लिखने की शर्त पर ही मंदिर में प्रवेश पा सकते हैं।
  

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Wednesday, 21 October 2015

यहां देवी की प्रतिमा विभिन्न रूप बदलती है,मूर्ति से आंसू भी आता है


एक ऎसा देवी मंदिर भिवानी का है जो आपको आश्चर्य में डाल सकता है। भिवानी के भोजांवाली देवी मंदिर की खासियत ये है कि यहां देवी की प्रतिमा विभिन्न रूप बदलती है। भोजांवाली देवी मंदिर भिवानी की एतिहासिक धरोहरों में से एक है ।

किस्से के अनुसार जिस जगह पर सात सौ साल पूर्व ये मंदिर बनाया गया वहां झाड-झंखाड थे। एक मूर्ति राजस्थान ले जाने के लिए लाई जा रही थी। रात्रि विश्राम के लिए मूर्ति ले जाने वाले यहां रूके व अगले दिन जब जाने लगे तो मूर्ति अपनी जगह से नहीं हिली।

लाख कोशिशों के बावजूद मूर्ति नहीं हिली। थक-हारकर मूर्ति को वहीं स्थापित करना पडा। मंदिर के पुजारी व अन्य की मानें तो मूर्ति की खासियत यह है कि इसकी नाक बिंधी हुई है जो कि शायद ही हिंदुस्तान में कहीं होगी। वहीं मूर्ति की आंखों से आंसू निकलते हें तो मूर्ति को पसीना भी आता है।

इसकी वजह ये बताई जा रही है कि भी़ड को माता महसूस करती है तथा इसी वजह से प्रतिमा को भी पसीने आते हैं। वहीं माता की प्रतिमा नवरात्रों में नौ दिन नए-नए रूप बदलती है ऎसा श्रद्धालुओं का मानना है।

यहां न केवल हरियाणा से बल्कि देश-विदेश में बसे भारतीय भी नवरात्रों व आम दिनों में यहां आते हैं।

मंदिर की खासियत व इसके महत्त्व का अंदाजा यहां उम़डेन वाली भी़ड से लगाया जा सकता है। हकीकत तो श्रद्धालु ही जानें मगर यदि उनकी बातों पर विश्वास किया जाए तो निश्चित तौर पर मंदिर चमत्कारी है !



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Sunday, 18 October 2015

वैदिक जीवन शैली का महत्व दैनिक दिनचर्या मे !




वेद सबसे पुराना और सबसे पवित्र लिखित ज्ञान है। जिसे ऋषि-मुनियों ने लिपिबद्ध किया। वेद चार हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद। इन चारों वेदों के पश्चात् आयुर्वेद को पंचम वेद की संज्ञा दी गयी है। आयुर्वेद शब्द दो शब्दों के संयोग से बना है। आयु: + वेद। आयु का अर्थ है – जन्म-मृत्यु पर्यन्त जीवन के सभी पहलू और वेद का अर्थ है !

आयुर्वेद आयुष विज्ञान है जो कि हमें जीवन जीने की कला सिखाता है ,जो कि स्वास्थ्य एवं रोग अथवा जीवों के संतुलन एवं असंतुलन की स्थितियों को प्रकट करता है। हम कैसे जीवन को प्राकृतिक ढंग से संतुलित करें , यही आयुर्वेद का सार है। यह संतुलन आहार-विहार, विचार व निद्रा पर आघारित है।

आयुर्वेद के द्वारा रोगियों को रोग से मुक्ति मिलती है और स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य की रक्षा होती है आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र में प्रात:काल ब्रम्ह मुहूर्त में उठने से लेकर रात्रि में शयन पर्यन्त किस प्रकार समय व्यतीत करना चाहिए, इसके लिए जीवनचर्या और दिनचर्या प्रस्तुत की गयी हैं।

प्रात: जागरण –

पूर्ण स्वस्थ रहने के लिए कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को प्रात:काल ब्रम्ह मुहूर्त में उठना चाहिए। ब्रम्ह मुहूर्त की ब़डी महिमा है। इस समय उठने वाला व्यक्ति स्वास्थ्य, घन, विद्या, बल और तेज को बढ़ाता है और जो सूर्य उगने के समय सोता है, उसकी उम्र और शक्ति घटती है तथा वह नाना प्रकार की बीमारियों का शिकार होता है।

जल पान –

प्रात: काल सूर्योदय के पूर्व मल-मूत्र के त्याग करने से पहले जल पीना चाहिए। रात्रि में ताम्रपात्र में रखा हुआ जल प्रात:काल कम से कम आघा लीटर तथा संभव हो तो सवा लीटर पीना चाहिए। इसे उष:पान कहा जाता है। इससे कफ, वायु एवं पित्त-त्रिदोष का नाश होता है तथा व्यक्ति बलशाली एवं दीर्घायु हो जाता है। दस्त साफ होता है और पेट के विकार दूर होते हैं। बल, बुद्धि और ओज बढ़ता है।

मल-मूत्र-त्याग –

जल पान के बाद व्यक्ति को मल-मूत्र त्याग करना चाहिए। मल-मूत्र त्याग करते समय मौन रहना चाहिए। मल-मूत्रादि के वेग को रोकना नहीं चाहिए।
दन्तघावन : शौच निवृत्ति के पश्चात् व्यक्ति को मंजन से दांत साफ करना चाहिए। दाँत साफ करने के बाद जीभी से जीभ भी साफ करनी चाहिए।
व्यायाम तथा वायु सेवन : शरीर को स्वस्थ रखने के लिए नियमित रूप से योगासन अथवा व्यायाम अवश्य करना चाहिए। सुबह और शाम को नित्य खुली, ताजी और शुद्ध हवा में अपनी शक्ति के अनुसार थकान न मालूम होने तक घूमना चाहिए।

तेल-मालिश –

रोज सारे बदन में तेल की मालिश करने से ब़डा लाभ होता है। सिर का ठंडा रहना और पैरों का गरम रहना अच्छा है।

दैनिक-स्त्रान –

व्यक्ति को प्रतिदिन स्वच्छ जल से नहाना चाहिए। दैनिक स्नान से शरीर सॉफ व स्वस्थ रहता है!

संतुलित-भोजन –

भोजन खूब चबा-चबा कर करना चाहिए। भोजन संतुलित मात्रा में करना चाहिए अर्थात् न तो इतना कम होना चाहिए कि जिससे शरीर की शक्ति घट जाए और न इतना अघिक होना चाहिए जिसे पेट पचा ही न सके।

भोजन के बाद के कृत्य –

भोजन करने के बाद दाँतों को खूब अच्छी तरह साफ करना चाहिए ताकि उनमें अन्न का एक कण भी नहीं रह जाए। भोजन के बाद दौ़डना, कसरत करना, तैरना, नहाना और तुरंत ही बैठकर काम करने लगना स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है।

शयन : रात में भोजन करने के तुरंत बाद सोना नहीं चाहिए। बांयीं करवट सोना स्वास्थ्य के लिए उत्तम है।

यही वैदिक दिनचर्या है वो वेद आपको पालन कर सुखमय जीवन जीने का सनातन मार्ग सीखते हैं


   

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मुस्लिम महिला ने खोजा माता का मंदिर




सियासत धर्म की आड़ में लोगों को तोड़ती है तो आस्था समाजों को जोड़ने में अहम भूमिका निभाती है, ऐसा ही कुछ हुआ है मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में, जहां एक मुस्लिम महिला में देवी के प्रति जागी आस्था ने मजहबी एकता की मिसाल पेश की है। मंदसौर के श्यामगढ़ के माता मंदिर की पहचान हिंदुओं के मंदिर के तौर पर नहीं है। यहां आने वाला भक्त किसी धर्म का नहीं, बल्कि माता का भक्त होता है। इस मंदिर की खोज भी एक मुस्लिम महिला सुगना बी ने की है और उसी ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया है। इतना ही नहीं, वही मंदिर में नियमित तौर पर आरती भी करती है।


सुगना बी ने बताया कि उसे एक दिन सपना आया कि उसके घर के आसपास मंदिर है, उसने उसे महज सपना मानकर महत्व नहीं दिया। उसके कुछ दिन बाद फिर उसे ऐसे लगा, जैसे कोई देवी उससे मंदिर होने की बात कह रही हों। वह बताती है कि उसने अन्य महिलाओं के साथ एक स्थान पर जाकर देखा तो वहां देवी की प्रतिमा दिखी। उसके बाद उसने लोगो से चंदा इकट्ठा कर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। वह मजदूरी कर अपने परिवार का भरण पोषण करती है। वह हर रोज काम पर जाने से पहले और लौटकर मंदिर जाना नहीं भूलती।
चैत्र नवरात्र में यह मंदिर माता की भक्ति के रंग में रंगा हुआ है, यहां पहुंचने वाले श्रद्घालुओं को कहना है कि धर्म कोई भी हो, वह सभी को मिलजुलकर रहने का संदेश देता है, माता के मंदिर के जीर्णोद्धार में सुगना बी ने अहम भूमिका निभाकर साबित कर दिया है कि आस्था किसी की किसी भी धर्म के प्रति हो सकती है।
एक तरफ जहां एक मुस्लिम महिला ने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया है, वहीं आम लोगों के सहयोग से मंदिर के बाहर गरबा का भी आयोजन किया गया है। इसमें सभी धर्मो के लोग हिस्सा ले रहे हैं। यह मंदिर और गरबा का आयोजन कौमी एकता की मिसाल बन गया है।



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Friday, 16 October 2015

many benefits of chanting with bath

                  स्नान के साथ मंत्र जाप करने से मिलता है लाभ





गंगा के तट पर पानी में लगातार डुबकियां लगाता इंसान क्या सोचता है? शायद वह यही सोचता है कि यही वो मार्ग है जो उसे जीवन समाप्त होने के बाद मोक्ष पाने में सहायक होगा। यह मार्ग उसके जीवन-मरण के चक्र को खत्म कर उसे संसार के जंजाल से बाहर निकालने में मदद कर सकेगा।

हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मनुष्य की आत्मा कभी नहीं मरती, बल्कि कुछ समय के पश्चात वह किसी अन्य शरीर का हिस्सा बनने के लिए पुनर्जन्म लेती है। और यदि कोई मनुष्य जीवन-मरण के इस जंजाल से बचना चाहता है तो वह ‘मोक्ष’ की कामना करता है।

मोक्ष उस आत्मा को बार-बार जन्म लेने से रोकता है। हिन्दू धर्म में गंगा स्नान मोक्ष पाने का एक मार्ग है। भगवान शिव की जटाओं से निकली मां गंगा बेहद पवित्र मानी जाती हैं। लेकिन केवल गंगा में जाकर दो-चार बार डुबकी लगाने से ही मोक्ष का मार्ग नहीं पाया जा सकता।

हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के अनुसार ‘स्नान’ एक अहम कार्य है। यदि यह अध्यात्मिक नियमों के अनुसार किया जाए तो ही फलदायी होता है। इसके अनुसार स्नान करने का सही समय सुबह 4 बजे का है जिसे ‘ब्रह्म मुहूर्तम्’ कहा जाता है।
वेदों के अनुसार अविवाहित इंसान को दिन में एक बार, शादीशुदा को दो बार तथा एक ऋषि एवं संत-महात्मा को दिन में तीन बार स्नान करना चाहिए।

वैज्ञानिक दृष्टि से स्नान करने से शारीरिक मल का नाश होता है, जिससे व्यक्ति तरो-ताजा महसूस करता है। अपने शरीर को स्वच्छ बनाए रखना बेहद जरूरी है क्योंकि अस्वच्छ तन रोगों को आमंत्रित करता है। लेकिन आत्मा को स्वच्छ बनाने के लिए धार्मिक रूप से स्नान करना जरूरी है।

हिन्दू पुराणों में अहम गरुड़ पुराण द्वारा भी स्नानम का महत्त्व समझाया गया है। कहते हैं पानी एक ऐसी वस्तु है जो शरीर पर पड़ते ही अपने साथ शरीर की सारी अशुद्धियों को बहा ले जाती है। यह मनुष्य को पवित्र करती है।

लेकिन किस प्रकार के पानी में स्नान किया जाए यह भी एक अहम बिन्दु है। हिंदू विधानों के अनुसार तालाब के पानी में, वर्षा के पानी में या फिर नदी के पानी में स्नान करना लाभकारी सिद्ध होता है। यह पानी आपके शरीर के साथ आपके मन एवं मस्तिष्क को भी पवित्र बनाता है।

लेकिन स्नान के साथ यदि मंत्र का जाप भी किया जाए तो स्नान का फल कई गुणा अधिक बढ़ जाता है। शास्त्रों में शामिल किए गए ‘स्नानम मंत्र’ का जाप अत्यंत लाभकारी है। इस मंत्र का यदि पूर्ण मन से ध्यान लगाकर जाप जाए तो यह शारीरिक एवं अन्य सभी अशुद्धियों को साफ करता है।

शास्त्रों के अनुसार वर्णित ‘’स्नान मंत्र’ है - ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स: बाह्याभंतर: शुचि:।। इस मंत्र का अर्थ है - कोई भी मनुष्य जो पवित्र हो, अपवित्र हो या किसी भी स्थिति को प्राप्त क्यों न हो, जो भगवान पुण्डरीकाक्ष का स्मरण करता है, वह बाहर-भीतर से पवित्र हो जाता है। भगवान पुण्डरीकाक्ष पवित्र करें।

हिन्दू धर्म में पुण्डरीकाक्ष भगवान विष्णु का उल्लेख करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। भगवान विष्णु ही जल के देवता हैं तथा यदि कोई उनका जाप करते हुए स्नान करता है तो विष्णु उसे सभी संसारिक पापों से मुक्त कर देते हैं।

भगवान विष्णु के साथ उस व्यक्ति को विष्णु की पत्नी मां लक्ष्मी का भी आशीर्वाद मिलता है। धन की देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने से व्यक्ति के जीवन में किसी भी प्रकार की कमी नहीं आती।

नियमित रूप से स्नान करने के बाद हिन्दू धर्म में पुरोहित द्वारा व्यक्ति के हाथों में गंगा जल अर्पित किया जाता है, जिसे मंत्र का जाप करते हुए ही ग्रहण करना चाहिए।

भारत में अहम हिन्दू त्यौहारों पर गंगा स्नान का महत्व है। खासतौर पर विभिन्न मेले तथा उत्सवों में स्नान करने के लिए भक्तों की बड़ी भीड़ एकत्रित होती है। इस दौरान सभी अपने पापों की मुक्ति के लिए विधिपूर्वक स्नान करते हैं।

हिन्दू धर्म के अलावा बौद्ध धर्म में भी स्नान का महत्वपूर्ण स्थान है। बौद्ध धर्म में किसी भी पवित्र कार्य को करने से पहले स्नान करना जरूरी है। बौद्ध धर्म में भी स्नान करने के लिए कुछ नियम कानून बनाए गए हैं।

इस धर्म के भिक्षु स्नान करने के लिए केवल पानी का ही इस्तेमाल कर सकते हैं। यानी कि शरीर को साफ करने के लिए वे केवल अपने हाथों का प्रयोग कर सकते है क्योंकि हाथों के अलावा स्नान करते समय किसी भी अन्य वस्तु का प्रयोग करना बौद्ध धर्म में वर्जित माना गया है।


यदि कोई बौद्ध भिक्षु किसी शारीरिक पीड़ा (उदाहरण के लिए किसी प्रकार का त्वचा संक्रमण) से ग्रस्त है जिसके लिए उसे किसी वस्तु का प्रयोग करके उसे खत्म करना होगा, तो वह केवल मलक या फिर मगरमच्छ के दांतों से बने पीठ खुजाऊ वस्तु का प्रयोग कर सकते हैं।


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भीम ने व्रत रखा था महर्षि वेद व्यास के कहने पर




किसी धर्म की महानता एवं सम्पूर्णता केवल उस धर्म से जुड़े ग्रंथों एवं गुरुओं से नहीं होती, बल्कि उस विशेष धर्म से जुड़े लोग भी उसे महान बनाते हैं। जो अपने धार्मिक कार्यों से दुनिया भर में अपने धर्म का उच्चतम दर्जे पर प्रतिनिधित्व करते हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है हिन्दू धर्म के रीति रिवाज़।

यह धर्म समय-समय पर अपने संस्कारों से धर्म की महान छवि को दर्शाता है। इन्हीं संस्कारों में से एक है एकादशी का व्रत। एकादशी को हिन्दू धर्म में एक महान दिन के रूप में माना जाता है। यह दिन आध्यात्मिक दृष्टि से किसी भी शुभ कार्य को करने के लिए सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

इसके महत्वपूर्ण स्थान को देखते हुए ही शास्त्रों में इस दिन व्रत रखने का प्रावधान है। आमतौर पर हिन्दू पंचांग के अनुसार प्रत्येक माह की 11वीं चंद्रमा तिथि को एकादशी का दिन माना जाता है। हर एक माह में दो एकादशियां होती हैं।

एकादशी कब आती है इसके पीछे भी काफी रोचक तथ्य हैं। कुछ गहराई में समझें तो हिन्दू पंचांग के अनुसार हर माह में दो एकादशियां होती हैं। हिन्दू पंचांग के प्रत्येक माह को दो पक्षों में विभाजित किया जाता है – कृष्ण पक्ष तथा शुक्ल पक्ष।

प्रत्येक पक्ष 15 दिनों के लिए होता है। कृष्ण पक्ष की समाप्ति जहां पूर्णिमा पर होती है, वहीं दूसरी ओर शुक्ल पक्ष का 15वां दिन अमावस्या का माना जाता है।

इस तथ्यों को उदाहरण सहित समझाएं तो हिन्दू पंचांग के 12 महीनों में से एक है ज्येष्ठ माह। यह माह शुरू ही कृष्ण पक्ष से होता है। और इसके आरंभ होने के बाद 11वां दिन एकादशी का माना जाता है। इसी तरह से कृष्ण पक्ष का 11वां दिन भी एकादशी का होता है।

यही कारण है कि हर माह में दो तथा पूरे वर्ष में कुल मिलाकर 24 एकादशियां होती हैं। इन सभी एकादशियों में से बेहद खास मानी जाती है ‘भीमसेनी एकादशी’। यह खास प्रकार की एकादशी वर्ष के ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में 11वें दिन को मनायी जाती है।

आम लोगों में यह एकादशी ‘निर्जला एकादशी’ के नाम से भी प्रसिद्ध है, लेकिन महाभारत युग के वीर योद्धा तथा बलशाली पाण्डु पुत्र ‘भीमसेन’ से जुड़े होने के कारण यह एकादशी भीमसेनी एकादशी भी कहलाती है।

कहते हैं भीमसेन के कारण ही यह एकादशी आम से खास बनी तथा इसकी महत्ता और भी बढ़ गई। यह मान्यता हमें महाभारत काल की एक कथा से जोड़ती है, जिसके अनुसार एक बार राजकुमार भीम को भी व्रत रखने की इच्छा हुई।

लेकिन हरदम भूख से तड़पने वाले भीमसेन आखिर व्रत कैसे रखते। पांच पाण्डु पुत्रों में से भीमसेन को छोड़कर अन्य चार भाई तथा उनकी पत्नी द्रौपदी द्वारा हमेशा हर वर्ष 24 एकादशियों का व्रत रखा जाता था। लेकिन अकेले भीम ही थे जो किसी भी प्रकार का व्रत नहीं रख सकते थे।

उनके पेट में 'वृक' नाम की अग्नि उन्हें थोड़े-थोड़े समय बाद ही भोजन करने के लिए मजबूर करती थी। लेकिन उस दिन महर्षि वेदव्यासजी द्वारा जब सभी पांडवों को चारों पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाले एकादशी व्रत का संकल्प कराया गया तो भीम दुविधा में पड़ गए।

वेदव्यासजी मुख पर हल्की सी मुस्कुराहट लेते हुए ध्यानपूर्वक भीमसेन की बात सुनते रहे। वे आगे बोले, “पितामह! आप भली-भांति जानते हैं कि मेरे पेट में ‘वृक’ नाम की जो अग्नि है, वह मुझे दिन में एक या दो बार नहीं बल्कि बार-बार भोजन करने पर मजबूर करती है।“

इस अग्नि को शांत रखने के लिए मुझे कई लोगों के बराबर और कई बार भोजन करना पड़ता है। यही कारण है कि मैं एक दिन तो क्या कुछ पल के लिए भी भूखा नहीं रह सकता पितामह। तो आप ही बताइए कि मैं कैसे एकादशी जैसा पुण्यव्रत रखूं?


वेदव्यासजी पहले से ही जानते थे कि भीमसेन ऐसी बात का जिक्र अवश्य करेंगे। वह भीमसेन की इस दुविधा को समझते थे। इसीलिए उन्होंने भीम की समस्या का निदान करते हुए उन्हें एक ऐसा मार्ग दिखाया, जिसने भीमसेन की हर एक चिंता को दूर कर दिया।


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अपने ही पुत्र के कारण हुई थी श्रीकृष्ण की मृत्यु



महाभारत, कौरवों और पांडवों के बीच हुए युद्ध का वो रूप है जिसने कुरुक्षेत्र की मिट्टी तक लाल कर दी थी। कहा जाता है इस भयंकर युद्ध में इतने लोगों ने अपनी जान गंवाई थीं कि आज भी उनके लहू से कुरुक्षेत्र (जहां महाभारत का युद्ध लड़ा गया था) की मिट्टी का रंग लाल ही है।

ईर्ष्या, लालच और घमंड, ये तीनों ही कारण चचेरे भाइयों के बीच संग्राम के कारण बने। एक तरफ 100 कौरव भाई और दूसरी तरफ 5 पांडव। कृष्ण से लेकर भीष्म पितामह, द्रोण, शिखंडी आदि सभी बड़े-बड़े धुरंधरों ने इस युद्ध में भाग लिया।

महर्षि वेद व्यास ने महाभारत की कहानी को 18 खण्डों में संकलित किया था। कुरुक्षेत्र का युद्ध इस ग्रंथ का सबसे बड़ा भाग है लेकिन युद्ध के पश्चात भी बहुत कुछ ऐसा रह गया जिसके विषय में जानना बहुत जरूरी है। जिनमें श्रीकृष्ण की मृत्यु और द्वारका के नदी में समा जाने की घटना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

मौसल पर्व, 18 पर्वों में से एक है जो 8 अध्यायों का संकलन है। इस पर्व में श्रीकृष्ण के मानव रूप को छोड़ना और उनकी मृत्यु के पश्चात उनकी नगरी द्वारका के साथ घटी घटना का वर्णन है। आइए जानते हैं क्या छिपा है मौसल पर्व की कहानी के भीतर।


यह घटना कुरुक्षेत्र के युद्ध के 35 साल बाद की है। कृष्ण की द्वारका नगरी बहुत शांत और खुशहाल थी जहां युवाओं के भीतर चंचलता बड़ी ही सामान्य थी और वे सभी भोग-विलास में लिप्त रहते थे।

एक बार कृष्ण के पुत्र सांब को एक शरारत सूझी। स्त्री का वेश लेकर वह अपने दोस्तों के साथ ऋषि विश्वामित्र, दुर्वासा, वशिष्ठ और नारद से मिलने गया। वे सभी श्रीकृष्ण के साथ एक औपचारिक बैठक में शामिल होने के लिए द्वारका आए थे।

स्त्री के वेश में सांब ने ऋषियों से कहा कि वो गर्भवती है। वे उसे ये बताएं कि उसके गर्भ में बच्चे का लिंग क्या है। उनमें से एक ऋषि ने इस खेल को समझ लिया और क्रोधित होकर सांब को श्राप दिया कि वो लोहे के तीर को जन्म देगा, जिससे उनके कुल और साम्राज्य का विनाश होगा।

स्त्री के वेश में सांब ने ऋषियों से कहा कि वो गर्भवती है। वे उसे ये बताएं कि उसके गर्भ में बच्चे का लिंग क्या है। उनमें से एक ऋषि ने इस खेल को समझ लिया और क्रोधित होकर सांब को श्राप दिया कि वो लोहे के तीर को जन्म देगा, जिससे उनके कुल और साम्राज्य का विनाश होगा।

सांब ने ये सारी घटना उग्रसेन को बताई, उग्रसेन ने सांब से कहा कि वे तांबे के तीर का चूर्ण बनाकर प्रभास नदी में प्रवाहित कर दे, इस तरह उन्हें उस श्राप से छुटकारा मिल जाएगा। सांबा ने सब कुछ उग्रसेन के कहे अनुसार ही किया। साथ ही उग्रसेन ने ये भी आदेश पारित कर दिया कि यादव राज्य में किसी भी प्रकार की नशीली सामग्रियों का ना तो उत्पादन किया जाएगा और ना ही वितरण होगा।

इस घटना के बाद द्वारका के लोगों ने विभिन्न अशुभ संकेतों का अनुभव किया। सुदर्शन चक्र कृष्ण के शंख, उनके रथ और बलराम के हल का अदृश्य हो जाना, अपराधों और पापों में बढ़ोत्तरी होना, लाज-शर्म जैसी चीजों का समाप्त हो जाना। स्त्रियों द्वारा अपने पतियों और पुरुषों द्वारा अपनी पत्नियों के साथ विश्वासघात करना, आदि बेहद सामान्य घटनाक्रम हो गया था।

चारों ओर अपराध, अमानवीयता और पाप का साया था। बुजुर्गों और गुरुओं का असम्मान, निंदा, द्वेष जैसी भावनाओं में उल्लेखनीय बढ़त आदि सब द्वारका के लोगों का जीवन बन गया था।

ये सब देखकर भगवान कृष्ण परेशान हो गए और उन्होंने अपनी प्रजा से प्रभास नदी के तट पर जाकर तीर्थ यात्रा कर अपने पापों से मुक्ति पाने को कहा। सभी ने ऐसा ही किया। परंतु जब सभी यादव प्रभास नदी के किनारे पहुंचे तो वहां जाकर सभी मदिरा के नशे में चूर होकर, भोग-विलास में लिप्त हो गए। वे नाचते-गाते और मदिरा का सेवन करते।

मदिरा के नशे में चूर सात्याकि कृतवर्मा के पास पहुंचा और अश्वत्थामा को मारने की साजिश रचने और पांडव सेना के सोते हुए सिपाहियों की हत्या करने के लिए उसकी आलोचना करने लगा। वही कृतवर्मा ने भी सात्याकि पर आरोप मढ़ने शुरू कर दिए। बहस बढ़ती गई और इसी दौरान सत्याकि के हाथ से कृतवर्मा की हत्या हो गई।

कृतवर्मा की हत्या करने के अपराध में अन्य यादवों ने मिलकर सात्यकि को मौत के घाट उतार दिया। जब कृष्ण को इस बात का पता चला तो वे वहां पर प्रकट हुए और एरका घास को हाथ में उठा लिया। ये घास एक छड़ में परिवर्तित हो गई जिससे श्रीकृष्ण ने दोषियों को सजा दी।

मदिरा के नशे में चूर सभी ने घास को अपने हाथ में उठा लिया और सभी के हाथ में मौजूद वो घास लोहे की छड़ बन गई। जिससे सभी लोग आपस में ही भिड़ गए और एक-दूसरे को मारने लगे।

वभ्रु, दारुक और कृष्ण के अलावा अन्य सभी लोग मारे गए। बलराम इस उपद्रव का हिस्सा नहीं थे इसलिए वो भी बच गए। कुछ समय बाद वभ्रु और बलराम की भी मृत्यु हो गई, जिसके बाद कृष्ण ने दारुक को पांडवों के पास भेजा और कहा कि अर्जुन को सारी घटना बताकर उससे मदद लेकर आए।

दारुक इन्द्रप्रस्थ की ओर रवाना हो गया और पीछे से ही श्रीकृष्ण ने अपना देह त्याग दिया। कृष्ण की मृत्यु की घटना प्रभास नदी से ही जुड़ी है जिसमें लोहे की छड़ का चूर्ण बहाया गया था।

लोहे की छड़ का चूर्ण एक मछली से निगल लिया और वह उसके पेट में जाकर धातु का एक टुकड़ा बन गया। जीरू नामक शिकारी ने उस मछली को पकड़ा और उसके शरीर से निकले धातु के टुकड़े को नुकीला कर तीर का निर्माण किया।

कृष्ण वन में बैठे ध्यान में लीन थे। जीरू को लगा वह कोई हिरण है, उसने कृष्ण पर तीर चला दिया जिससे श्रीकृष्ण की मृत्यु हुई।

कुछ समय बाद अर्जुन मदद लेकर द्वारका पहुंचे और कृष्ण की मृत्यु की खबर पाकर अत्यंत दुखी हो गए। कृष्ण के जाने के बाद द्वारका में उनकी 16000 रानियां, कुछ महिलाएं, वृद्ध और बालक की शेष रह गए। वे सभी इन्द्रप्रस्थ के लिए रवाना होने लगे।

परंतु जैसे ही लोग द्वारका छोड़ने के लिए तैयार हुए, जल का स्तर बढ़ने लगा। म्लेच्छ और डाकुओं ने द्वारका पर आक्रमण कर दिया और जब अर्जुन उनकी सहायता करने के लिए अस्त्र चलाने लगे तो वे सभी मंत्र भूल गए। द्वारका नगरी पानी के भीतर समा गई।


अर्जुन, श्रीकृष्ण की कुछ रानियों और शेष प्रजा को लेकर इन्द्रप्रस्थ आ गए और वापस आकर सारी घटना युधिष्ठिर को बताई।


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