Saturday, 12 September 2015

Kumbh mela history in hindi

                                        Story behind Kumbh Mela  

                        चार कुंभ धरती पर  , आठ देवलोक में मनाते हैं - क्यों?



कुंभ मेले की भारतीय परम्परा मात्र एक मेले के रूप में नहीं, वरन् उत्सव के रूप में मनायी जाती है। यह एक ऐसा मेला है जहां लोग श्रद्धा के सागर में उपासना की डुबकी लगाते नजर आते हैं। लेकिन आज भी लोग पूर्ण रूप से कुंभ मेले की मान्यता, इससे जुड़े इतिहास एवं महत्व को समझ नहीं पाए हैं।


इतना ही नहीं, लोग शायद यह भी नहीं जानते कि वास्तव में कितने कुंभ मेले प्रचलित हैं और कितने मनुष्य जाति द्वारा मनाए जाने के लिए अधिकृत हैं। यह एक ऐसा पर्व है जो हिन्दू धर्म के सबसे महत्वपूर्ण पर्व में से एक है। यह मेला अपने पौराणिक इतिहास के साथ कुंभ पर्व स्थलों के कारण भी काफी प्रसिद्ध है।


भारत में केवल चार ऐसे स्थल हैं जहां कुंभ मेले का एक बड़े स्तर पर आयोजन किया जाता है। लेकिन केवल चार ही क्यों? चार से कम या ज्यादा क्यों नहीं? और केवल यही चार स्थल क्यों? इनके अलावा किसी अन्य स्थल पर कुंभ मेले का आयोजन करना सही क्यों नहीं माना जाता?


इन सभी प्रश्नों का उत्तर कुंभ मेले के आयोजन से जुड़ी एक पौराणिक कथा पर आधारित है। वैसे तो इस मेले से संबंधित कई पौराणिक एवं लोक प्रचलित कथाएं सुनने में आती हैं, लेकिन सबसे पुरानी एवं मान्यतानुसार सही माने जाने वाली कथा ‘समुद्र मंथन’ से जुड़ी है।


कहते हैं यह कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुंभ से गिरी अमृत बूंदों से बंधी है, जिसके कारण ही कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। इस कथा के अनुसार अपने क्रोध का ताप रोक ना पाने वाले महर्षि दुर्वासा ने एक बार देवराज इंद्र एवं अन्य महान देवताओं को शाप दे दिया था।


शाप के असर से सभी देवता कमजोर हो गए, जिसके फलस्वरूप दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण करना आरंभ कर दिया। दैत्यों के इस दुष्ट प्रभाव से हताश होकर सभी देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उनसे दैत्यों से छुटकारा पाने के लिए विनती करने लगे। देवताओं की तकलीफ को समझते हुए भगवान विष्णु ने उनसे दैत्यों के साथ मिलकर ही एक कार्य करने को कहा।


जी हां, यह कार्य था क्षीरसागर का मंथन करके अमृत निकालने का। आज्ञानुसार संपूर्ण देवता दैत्यों के साथ मिलकर अमृत निकालने के यत्न में लग गए। अमृत कुंभ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इंद्रपुत्र ‘जयंत’ अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया।


क्योंकि यदि यह कलश दैत्यों के हाथ लग जाता तो वह देवताओं की तुलना में और भी शक्तिशाली हो सकते थे। परन्तु दुर्भाग्य से दैत्यों की नज़र उड़ते हुए जयंत पर पड़ गई और दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा करना आरंभ कर दिया।
आकाश में उड़ते हुए घोर परिश्रम के पश्चात आखिरकार दैत्यों ने बीच रास्ते में जयंत को पकड़ लिया लेकिन जयंत इतनी आसानी से दैत्यों को कलश देने वाले नहीं थे। दोनों पक्षों में भीषण युद्ध हुआ, कहते हैं यह युद्ध पूरे 12 दिनों तक चलता रहा।


युद्ध के दौरान गलती से कलश में से पवित्र अमृत की चार बूंदें धरती की ओर गिर गई। पहली बूंद प्रयाग में गिरी तो दूसरी शिव की नगरी हरिद्वार में, तीसरी बूंद ने उज्जैन की ओर प्रस्थान किया तो चौथी बूंद नासिक की ओर जा गिरी। यही कारण है कि कुंभ के मेले को इन्हीं चार स्थलों पर मनाया जाता है।


कहते हैं उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। इस कलह को शांत करने के लिए भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया और यथाधिकार सबको अमृत बांटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अंत किया गया।
इस कथा के अनुसार अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में पूरे बारह दिन तक युद्ध हुआ था, लेकिन पृथ्वी लोक में स्वर्ग लोक का एक दिन एक वर्ष के बराबर माना जाता है। इसलिए कुंभ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं।


 मनुष्य जाति को अन्य आठ कुंभ मनाने का अधिकार नहीं है। यह कुंभ वही मना सकता है जिसमें देवताओं के समान शक्ति एवं यश प्राप्त हो। यही कारण है कि शेष आठ कुंभ केवल देवलोक में ही मनाए जाते हैं।
कुंभ मेले में सूर्य एवं बृहस्पति का खास योगदान माना जाता है इसलिए इनके एक राशि से दूसरे राशि में जाने पर ही कुंभ मेले की तिथि का चयन किया जाता है। मान्यतानुसार जब सूर्य मेष राशि और बृहस्पति कुंभ राशि में आता है, तब यह मेला हरिद्वार में मनाया जाता है।


परन्तु जब बृहस्पति वृषभ राशि में प्रवेश करता है और सूर्य मकर राशि में होता है, तो कुंभ का यह उत्सव प्रयाग में मनाया जाता है। इसके अलावा जब बृहस्पति और सूर्य दोनों ही वृश्चिक राशि में प्रवेश करें तो यह मेला उज्जैन में मनाया जाता है।



किन्तु जब बृहस्पति और सूर्य सिंह राशि में होते हैं तब यह महान कुंभ मेला महाराष्ट्र के नासिक में मनाया जाता है। केवल इन स्थानों पर उत्सव मनाने का ही नहीं, बल्कि यहां आकर विभिन्न कार्यों को करने के पीछे भी कई मान्यताएं बनाई गई हैं।
कहते हैं कुंभ मेले के दौरान श्रद्धा भाव सबसे उच्चतम माना जाता है। जो जितनी ज्यादा श्रद्धा से यहां आता है उसकी उतनी ही मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। इन मान्यताओं की उत्पत्ति हिन्दू धर्म के विभिन्न पौराणिक ग्रंथों में उल्लिखित है।


स्कन्द पुराण के अनुसार कुंभ मेले के दौरान भक्ति भावपूर्वक स्नान करने से जिनकी जो कामना होती है, वह निश्चित रूप से पूर्ण होती है। अग्निपुराण में कुंभ मेले को गौ दान से भी जोड़ा गया है। इसमें कहा गया है कि इस उत्सव में श्रद्धापूर्वक स्नान करने से वही फल प्राप्त होता है जो करोड़ों गायों का दान करने से मिलता है।
ब्रह्म पुराण में कहा गया है कि स्नान करने से अश्वमेध यज्ञ जैसा फल मिलता है और मनुष्य सर्वथा पवित्र हो जाता है।


पौराणिक मान्यतानुसार अश्वमेध यज्ञ संसार के सभी यज्ञों में सबसे उत्तम यज्ञ माना गया है।
इसके अलावा कुंभ मेले में स्नान करने हेतु मोक्ष प्राप्ति का भी फल प्राप्त होना माना गया है। कूर्म पुराण के अनुसार इस उत्सव में स्नान करने से सभी पापों का विनाश होता है और मनोवांछित फल प्राप्त होते हैं। यहां स्नान से देवलोक भी प्राप्त होता है।


भविष्य पुराण के अनुसार स्नान के पुण्य स्वरूप स्वर्ग मिलता है ओर मोक्ष की प्राप्ति होती है। इन्हीं सभी मान्यताओं का ही परिणाम है कि कुंभ मेले के दौरान खासतौर से विशेष स्नान तिथियों का आयोजन किया जाता है। मुहूर्त के अनुसार खास तिथियां निकाली जाती हैं जिसके आधार पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु स्नान तट पर एकत्रित होते हैं तथा अपने पापों का विसर्जन करते हैं।


                                                             

You can follow us with one click on :

                                                                www.sanatanpath.com

                                                                        facebook

                                                                         Twitter

No comments: